जमाने को अपने हालात क्या बतलाते,
हम अपनों को दिए जख्म सिल रहे है|
जज्बातों की आँधी कब की सांत हो चुकी '
अब तो हम बस अपनों से लड़ रहे है|
जिन्दगी दी थी अपनों को कभी'
वही मेरे मौत पर हस रहे है|
अपनों को रखा था हमेसा करीब
क्यों वो अब पराये से लग रहे है|
मौत तो कब की हो चुकी है मेरी,
फिर क्यों मरे प्राण अटके पड़े है|
कब्र खोदी थी खुद ही मैंने अपनी,
फिर क्यों दफ़न होने से डर रहे है|
रचनाकार--प्रदीप तिवारी
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pradeeptiwari.mca@gmail.com
very nice ...
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