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Tuesday, October 11, 2011

परिवर्तन

जमाने को अपने हालात क्या बतलाते,
हम अपनों को दिए जख्म सिल रहे है|
         जज्बातों की आँधी कब की सांत हो चुकी '
        अब तो  हम  बस अपनों से लड़ रहे है|
जिन्दगी दी थी अपनों को कभी'
वही मेरे  मौत पर हस रहे है|
       अपनों को रखा था हमेसा  करीब
       क्यों वो  अब पराये से  लग रहे है|
मौत तो कब की हो चुकी है मेरी,
फिर क्यों  मरे प्राण अटके पड़े है|
         कब्र खोदी थी  खुद ही मैंने अपनी,
        फिर क्यों दफ़न होने से डर रहे है|

रचनाकार--प्रदीप तिवारी 
www.pradeeptiwari.blogspot.com
pradeeptiwari.mca@gmail.com

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